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खेल मनोविज्ञान की आवश्यकता

आवश्यकता ही आविष्कार की जननी है यह हम पढते हैं सही भी है जितने भी अविष्कार हुए हैं वह हमारी आवश्यकताओं के कारण से ही हुऐ है मनोविज्ञान जैसे विज्ञान का उद्भव भी मानव की मानसिक आवश्यकताओं समस्याओं कठिनाईयों के निवारण के लिए हुआ फिर मनोविज्ञान की कई शाखाएं बनी उनमें से एक शाखा खेल मनोविज्ञान भी है एक बात का ध्यान रखें खेल मनोविज्ञान और शारीरिक शिक्षा एवं मनोविज्ञान में जमीन आसमान का अंतर है इसलिए दोनों को एक करके कभी न देखे खेल मनोविज्ञान की आवश्यकता खिलाड़ियों के लिए है जो मैंने अपनी परिभाषा में आपको बताया है खेल मनोविज्ञान की आवश्यकता खिलाड़ी के लिए क्यों है इसके बारे में अपन अब चर्चा करेंगे मनोविज्ञान हमारे व्यवहार का विज्ञान है खेल मनोविज्ञान खिलाड़ी व्यवहार का विज्ञान मनोविज्ञान में जो भी विशेषीकृत क्षेत्र आते हैं उन सब का उपयोग खिलाड़ी के रूप में व्यक्ति करता है जैसे की मूल प्रति , अभिवृत्ति संवेग आवेग , अभिप्रेरणा , रुचि , अतःनोर्द , ज्ञानात्मक प्रक्रिया, संज्ञान , बुद्धि लब्धि , व्यक्तित्व , सिखना, तनाव ,भय , चिंता , डर , दुश्चिंता , व्यक्तित्व , वैयक्तिक भिन्नता , आदि आदि मनोविज्ञान के अंतर्गत बढ़ाए जाने वाले विभिन्न बिंदुओं का खिलाड़ी के संदर्भ में अध्ययन करने की अत्यधिक आवश्यकता है और इन्हीं बिंदुओं को दृष्टिगत रखते हुए खेल मनोविज्ञान की आवश्यकता को हम प्रतिपादित करेंगे उसके बारे में आप से चर्चा करेंगे तो खेल मनोविज्ञान की क्यों आवश्यकता है बिंदुवार निम्नवत है

मूल प्रवृत्ति :-

मूल प्रवृति क्या है? – Quora. मूल प्रवृत्ति वह क्रिया है जो जन्मजात आन्तरिक बल होती है जो हमारे आवश्यकता की पूति के लिये अवश्यक होती है ।

भूख प्यास सुख दुःख गुस्सा

अभिवृत्ति (एप्टिट्युड् Attitude) :-

मनुष्य की वह सामान्य प्रतिक्रिया है जिसके द्वारा वस्तु का मनोवैज्ञानिक ज्ञान होता है। इसी आधार पर व्यक्ति वस्तुओं का मूल्यांकन करता है। कुछ पाश्चात्य वैज्ञानिकों ने अभिवृत्ति को मनुष्य की वह अवस्था माना है जिसके द्वारा मानसिक तथा नाड़ी-व्यापार-संबंधी अनुभवों का ज्ञान होता है। इस विचारधारा के प्रमुख प्रवर्त्तक औलपार्ट हैं। उनके सिद्धांतों के अनुसार अभिवृत्ति जीवन में वस्तुबोधन का मुख्य कारण है। इस परिभाषा के द्वारा अभिवृत्ति वह सामान्य प्रत्यक्ष है जिसके द्वारा मनुष्य भिन्न-भिन्न अनुभवों का समन्वय करता है। यह वह मापदंड है जिसके द्वारा व्यक्तित्व के निर्माण में सामाजिक तथा बौद्धिक गुणों का समावेश होता है। मनोवैज्ञानिकों ने अभिवृत्तियों का विभाजन, उनके वस्तु आधार, उनकी गहनता तथा उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर किया है। इसका घनिष्ठ संबंध व्यक्ति के अमूर्त विचार तथा कल्पना से ही है। अभिवृत्ति का जन्म प्राय: चार साधनों से होता हुआ देखा गया है–प्रथम समन्वय द्वारा, द्वितीय आघात द्वारा, तृतीय भेद द्वारा तथा चतुर्थ स्वीकरण द्वारा। यह आवश्यक नहीं है कि ये यंत्र स्वतंत्र रूप से ही कार्य करे; ऐसा भी देखा गया है कि इनमें एक या दो कारण् भी मिलकर अभिवृति को जन्म देते हैं। इस दिशा में अमेरिका के दो मनोवैज्ञानिकों

संवेग (भावना) :-

संवेग वस्तुतः ऐसी प्रकिया है, जिसे व्यक्ति उद्दीपक द्वारा अनुभव करता है। संवेदनात्मक अनुभव:- संवेदन चेतन उत्पन्न करने की अत्यंत प्रारम्भिक स्थिति है। शिशु का संवेदन टूटा-फूटा अधूरा होता है। प्रौढ़ की संवेदना विकृतजन्य होती है।

भावनाओं का कोई निश्चित वर्गीकरण मौजूद नहीं है, हालांकि कई वर्गीकरण प्रस्तावित किये गये हैं। इनमें से कुछ वर्गीकरण हैं:
‘संज्ञानात्मक’ बनाम ‘गैर-संज्ञानात्मक’ भावनाएं
स्वाभाविक भावनाएं (जो एमिग्डाला/मस्तिष्क के एक विशेष हिस्से से उत्पन्न होती है), बनाम संज्ञानात्मक भावनाएं (जो प्रीफ्रंटल कोर्टेक्स/ मस्तिष्क के अगले हिस्से से उत्पन्न होती है) बुनियादी बनाम जटिल: जहाँ मूल भावनाएं और अधिक जटिल हो जाती हैं।

अवधि के आधार पर वर्गीकरण : कुछ भावनाएं कुछ सेकंड की अवधि के लिए होती हैं (उदाहरण के लिए आश्चर्य), जबकि कुछ कई वर्षों तक की होती हैं (उदाहरण के लिए, प्यार).

भावना और भावना के परिणामों के बीच संबंधित अंतर मुख्य व्यवहार और भावनात्मक अभिव्यक्ति है। अपनी भावनात्मक स्थिति के परिणामस्वरूप अक्सर लोग कई तरह की अभिव्यक्तियां करते हैं, जैसे रोना, लड़ना या घृणा करना. यदि कोई बिना कोई संबंधित अभिव्यक्ति के भावना प्रकट करे तो हम मान सकते हैं की भावनाओं के लिए अभिव्यक्ति की आवश्यकता नहीं है। न्यूरोसाइंटिफिक (स्नायुविज्ञान) शोध से पता चलता है कि एक “मैजिक क्वार्टर सैकंड” होता है जिसके दौरान भावनात्मक प्रतिक्रिया बनने से पहले विचार को जाना जा सकता है। उस पल में, व्यक्ति भावना को नियंत्रित कर सकता है।

अभिप्रेरणा :-

अभिप्रेरणा लक्ष्य-आधारित व्यवहार का उत्प्रेरण या उर्जाकरण है। अभिप्रेरणा या प्रेरणा आंतरिक या बाह्य हो सकती है। इस शब्द का इस्तेमाल आमतौर पर इंसानों के लिए किया जाता है, लेकिन सैद्धांतिक रूप से, पशुओं के बर्ताव के कारणों की व्याख्या के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इस आलेख का संदर्भ मानव अभिप्रेरणा है। विभिन्न सिद्धांतों के अनुसार, बुनियादी ज़रूरतों में शारीरिक दुःख-दर्द को कम करने और सुख को अधिकतम बनाने के मूल में अभिप्रेरणा हो सकती है, या इसमें भोजन और आराम जैसी खास ज़रूरतों को शामिल किया जा सकता है; या एक अभिलषित वस्तु, शौक, लक्ष्य, अस्तित्व की दशा, आदर्श, को शामिल किया जा सकता है, या इनसे भी कमतर कारणों जैसे परोपकारिता, नैतिकता, या म्रत्यु संख्या से बचने को भी इसमें आरोपित किया जा सकता है।

प्रकार
आंतरिक अभिप्रेरणा
वाह्य अभिप्रेरणा

अभिरुचि/रुचि (Interest) :-

अभिरुचि शब्द अंग्रेजी के interest शब्द का हिंदी रूपान्तरण है जो लैटिन भाषा के interesse शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ होता है-अंतर स्थापित करना, महत्वपूर्ण होना या लगाव होना।

अधिगम के लिए यह सबसे महत्त्वपूर्ण है,रुचि और अधिगम के संबंध में ये कहा जाता है कि-बिना रुचि के ध्यान नही और बिना ध्यान के अधिगम नही।

ड्राइव :-

साइकलकेरी द्वारा, मनोविज्ञान में बताए अनुसार, हूल के ड्राइव-रिडक्शन सिद्धांत द्वारा जाना जा रहा है:
एक आवश्यकता कुछ सामग्री (जैसे कि भोजन या पानी) की आवश्यकता है जो जीव के अस्तित्व के लिए आवश्यक है। जब एक जीव की आवश्यकता होती है, तो यह एक मनोवैज्ञानिक तनाव के साथ-साथ एक शारीरिक उत्तेजना का कारण बनता है जो जीव को कार्य को पूरा करने और तनाव को कम करने के लिए प्रेरित करता है। इस तनाव को ड्राइव (हल, 1943) कहा जाता है।
महातू (1989) के पेपर के सार में, “मोटिव्स नीड्स, ड्राइव्स, वान्ट्स: स्ट्रेटजी इम्प्लिमेंट्स” से विभेदित होना चाहिए, निम्नलिखित कहा गया है:

एक सुझाए गए मॉडल में, उद्देश्यों को विशिष्ट प्रेरक तत्व के रूप में सुझाया जाता है जो उपभोक्ता की किसी विशेष प्रतिक्रिया की ओर ड्राइव करता है। इस प्रकार जब प्रतिक्रिया की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, तो उद्देश्य विशिष्ट व्यवहार क्रिया का निर्धारण करते हैं।

जानकारी के इन दो स्रोतों से मैं जो जिक्र कर रहा हूं, वह है:

  1. आवश्यकता एक शारीरिक / मनोवैज्ञानिक आवश्यकता है

संज्ञानात्मक विकास (Cognitive development) :-

तंत्रिकाविज्ञान तथा मनोविज्ञान का एक अध्ययन क्षेत्र है जिसमें बालक द्वारा सूचना प्रसंस्करण, भाषा सीखने, तथा मस्तिष्क के विकास के अन्य पहलुओं पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
संज्ञान (कॉग्नीशन) से तात्पर्य मन की उन आन्तरिक प्रक्रियाओं और उत्पादों से है, जो जानने की ओर ले जाती हैं। इसमें सभी मानसिक गतिविधियाँ शामिल रहती हैं- ध्यान देना, याद करना, सांकेतीकरण, वर्गीकरण, योजना बनाना, विवेचना, समस्या हल करना, सृजन करना और कल्पना करना। निश्चित ही हम इस सूची को आसानी से बढ़ा सकते हैं क्योंकि मनुष्यों के द्वारा किये जाने वाले लगभग किसी भी कार्य में मानसिक प्रक्रियाएँ शामिल हो जाती हैं। जीवन निर्वाह के लिए हमारी संज्ञानात्मक शक्तियाँ बहुत महत्वपूर्ण हैं। पर्यावरण की बदलती दशाओं के अनुरूप अपने को ढालने में दूसरी प्रजातियों को छद्मावरण, पंखों, फरों और विलक्षण रफ़्तार का लाभ मिलता है। इसके विपरीत, मनुष्य सोचने पर निर्भर करते हैं जिसके द्वारा वे न सिर्फ अपने पर्यावरण के अनुरूप खुद को ढाल लेते हैं बल्कि उसे रूपांतरित भी कर देते हैं। अपनी असाधारण मानसिक क्षमताओं के चलते हम पृथ्वी के समस्त प्राणियों के बीच श्रेष्ठ हो जाते हैं।

बुद्धि लब्धि :-

बुद्धि लब्धि या इंटेलिजेंस कोशेंट (Intelligence quotient / IQ) कई अलग मानकीकृत परीक्षणों से प्राप्त एक गणना है जिससे बुद्धि का आकलन किया जाता है। “IQ” पद की उत्पत्ति जर्मन शब्द Intelligenz-Quotient से हुई है जिसका पहली बार प्रयोग जर्मन मनोवैज्ञानिक विलियम स्टर्न ने 1912 में 20वीं सदी की शुरुआत में अल्फ्रेड बाईनेट और थेओडोर सिमोन द्वारा प्रस्तावित पद्धतियों के लिए किया, जो आधुनिक बच्चों के बौद्धिक परीक्षण के लिए अपनाया गया था। हालांकि “IQ” शब्द का उपयोग आमतौर पर अब भी होता है किन्तु, अब वेचस्लेर एडल्ट इंटेलिजेंस स्केल जैसी पद्धतियों का उपयोग आधुनिक बौद्धिक स्तर (IQ) परीक्षण में किया जाता है जो गौस्सियन बेल कर्व (Gaussian bell curve) किसी विषय के प्रति झुकाव पर नापे गये रैंक के आधार पर किया जाता है, जिसमें केन्द्रीय मान (औसत IQ)100 होता है और मानक विचलन 15 होता है। हालांकि विभिन्न परीक्षणों में मानक विचलन अलग-अलग हो सकते हैं।
बौद्धिक स्तर (IQ) की गणना को रुग्णता और मृत्यु दर,अभिभावकों की सामाजिक स्थिति और काफी हद तक पैतृक बौद्धिक स्तर (IQ) जैसे कारकों के साथ जोड़कर देखा जाता है। जबकि उसकी विरासत लगभग एक सदी से जांची जा चुकी है फिर भी इस बात को लेकर विवाद बना हुआ है कि उसकी कितनी विरासत ग्राह्य है और विरासत के तंत्र अभी भी बहस के विषय बने हुए हैं.
IQ की गणनाएं कई संदर्भों में प्रयुक्त की जाती है: शैक्षणिक उपलब्धियों अथवा विशेष जरूरतों से जुड़े भविष्यवक्ताओं, लोगों में IQ स्तर के अध्ययन तथा IQ के स्कोर तथा अन्य परिवर्तनों के बीच के सम्बंध का अध्ययन करने वाले समाज विज्ञानियों और किये गये कार्य और उससे हुई आय का भविष्यफल बताने वाले लोगों द्वारा किया जाता है।
कई समुदायों का औसत IQ स्कोर 20 वीं सदी के पहले दशकों में प्रति दशक तीन अंक के दर से बढ़ा है जिसमें से ज्यादातर वृद्धि IQ रेंज के उत्तरार्द्ध में हुई, जिसे फ्लीन इफेक्ट कहते हैं। यह विवाद का विषय है कि अंकों में यह परिवर्तन बौद्धिक क्षमता की वास्तविकता को दर्शाते हैं या फिर यह महज अतीत या वर्तमान के परीक्षण की सिलसिलेवार समस्या

व्यक्तित्व :-

व्यक्तित्व (personality) आधुनिक मनोविज्ञान का बहुत ही महत्वपूर्ण एवं प्रमुख विषय है। व्यक्तित्व के अध्ययन के आधार पर व्यक्ति के व्यवहार का पूर्वकथन भी किया जा सकता है। व्यक्तित्व को अंग्रेजी भाषा में “पर्सनालिटी” कहा जाता है यह पर्सनालिटी शब्द लैटिन भाषा के “परसोना” शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है – मुखौटा (Mask)
प्रत्येक व्यक्ति में कुछ विशेष गुण या विशेषताएं होती हो जो दूसरे व्यक्ति में नहीं होतीं। इन्हीं गुणों एवं विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न होता है। व्यक्ति के इन गुणों का समुच्चय ही व्यक्ति का व्यक्तित्व कहलाता है। व्यक्तित्व एक स्थिर अवस्था न होकर एक गत्यात्मक समष्टि है जिस पर परिवेश का प्रभाव पड़ता है और इसी कारण से उसमें बदलाव आ सकता है। व्यक्ति के आचार-विचार, व्यवहार, क्रियाएं और गतिविधियों में व्यक्ति का व्यक्तित्व झलकता है। व्यक्ति का समस्त व्यवहार उसके वातावरण या परिवेश में समायोजन करने के लिए होता है।
जनसाधारण में व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के बाह्य रूप से लिया जाता है, परन्तु मनोविज्ञान में व्यक्तित्व का अर्थ व्यक्ति के रूप गुणों की समष्ठि से है, अर्थात् व्यक्ति के बाह्य आवरण के गुण और आन्तरिक तत्व, दोनों को माना जाता है।

वैयक्तिक भिन्नता :-

प्रत्येक प्राणी अपने जन्म से ही विशेष शक्तियों को लेकर जन्म लेता है। ये विशेषताएँ उसको माँ एवं पिता के पूर्वजों से हस्तान्तरित की गयी होती है। इसी के साथ पर्यावरण भी छात्र के विकास पर प्रभाव डालता है। अतः स्पष्ट है कि सभी छात्र एक दूसरे से भिन्न होते है। एक कक्षा या एक समूह के विद्यार्थियों में विभिन्न प्रकार की भिन्नताएँ होना असाधारण बात नहीं है। ये भिन्नताएँ विद्यार्थियों में विभिन्न विशेषताओं के रूप में मिलती हैं।
वैयक्तिक भिन्नता का अर्थ-  जब दो बालक विभिन्न समानताएँ रखते हुए भी आपस में भिन्न व्यवहार करते हैं तो इसे ‘‘वैयक्तिक भिन्नता’ कहा जाता है। वैयक्तिक भिन्नता से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति में जैविक, मानसिक, सांस्कृतिक, संवेगात्मक अन्तर पाया जाना। इसी अन्तर के कारण एक व्यक्ति, दूसरे से भिन्न माना जाता है। अतः कोई भी दो व्यक्ति समान नहीं होते। यहाँ तक कि जुड़वाँ बच्चों में भी असमानता पाई जाती है। इस दृष्टि से वैयक्तिक भिन्नता प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुण है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक भिन्नता को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है-
स्किनर के अनुसार- ‘‘व्यक्तिगत विभिन्नता में सम्पूर्ण व्यक्तित्व का कोई भी ऐसा पहलू सम्मिलित हो सकता है, जिसका माप किया जा सकता है।’’
टायलर के अनुसार- ‘‘शरीर के आकार और स्वरूप, शारीरिक गति सम्बन्धी क्षमताओं, बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान, रूचियों, अभिवृत्तियों और व्यक्तित्व के लक्षणों में माप की जा सकने वाली विभिन्नताओं की उपस्थिति सिद्ध की जा चुकी है।’’
यदि हम उपर्युक्त कथनों का विश्लेषण करें, तो स्पष्ट होता है कि व्यक्तिगत भिन्नताओं के अन्तर्गत किसी एक विशेषता को आधार मानकर हम अन्तर स्थापित नहीं करते बल्कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व के आधार पर अन्तर करते हैं।

सीखना या अधिगम :-

(जर्मन: Lernen, अंग्रेज़ी: learning) एक व्यापक सतत् एवं जीवन पर्यन्त चलनेवाली महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। मनुष्य जन्म के उपरांत ही सीखना प्रारंभ कर देता है और जीवन भर कुछ न कुछ सीखता रहता है। धीरे-धीरे वह अपने को वातावरण से समायोजित करने का प्रयत्न करता है। इस समायोजन के दौरान वह अपने अनुभवों से अधिक लाभ उठाने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को मनोविज्ञान में सीखना कहते हैं। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही उसके जीवन का विकास होता है। सीखने की प्रक्रिया में व्यक्ति अनेक क्रियाऐं एवं उपक्रियाऐं करता है। अतः सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है।
उदाहरणार्थ – छोटे बालक के सामने जलता दीपक ले जानेपर वह दीपक की लौ को पकड़ने का प्रयास करता है। इस प्रयास में उसका हाथ जलने लगता है। वह हाथ को पीछे खींच लेता है। पुनः जब कभी उसके सामने दीपक लाया जाता है तो वह अपने पूर्व अनुभव के आधार पर लौ पकड़ने के लिए, हाथ नहीं बढ़ाता है, वरन् उससे दूर हो जाता है। इसीविचार को स्थिति के प्रति प्रतिक्रिया करना कहते हैं। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि अनुभव के आधार पर बालक के स्वाभाविक व्यवहार में परिवर्तन हो जाता है।अधिगम का सर्वोत्तम सोपान अभिप्रेरणा है
ई॰एल॰ थार्नडाइक अमेरिका का प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक हुआ है जिसने सीखने के कुछ नियमों की खोज की जिन्हें निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया गया है

(क) मुख्य नियम (Primary Laws)
  1. तत्परता का नियम
  2. अभ्यास का नियम
    उपयोग का नियम
    अनुप्रयोग का नियम
  3. प्रभाव का नियम
(ब) गौण नियम (Secondary Laws)
  1. बहु-अनुक्रिया का नियम
    2.मानसिक स्थिति का नियम
  2. आंशिक क्रिया का नियम
  3. समानता का नियम
  4. साहचर्य-परिर्वतन का नियम
    अधिगम स्थानांतरण (transfer of learning) के प्रकार
  5. सकारात्मक अधिगम अन्तरण
  6. नकारात्मक अधिगम अन्तरण
    सिखने के कर्ब
    सकारात्मक
    नकारात्मक
    S प्रकार

सिखने के पठार
सीढ़ी प्रकार
फ्लेट प्रकार

काया प्रकार :-

शैल्डन के अनुसार एंडोमोर्फ, एक्टोमोर्फ और मेसोमोर्फ में विभाजित करती है

क्रश्चमर के अनुसार
अस्थिनिक, पिकनिक, एथलेटिक

कार्ल गुस्टाफ युंग व अन्य के अनुसार
अंतर्मुखी बहुमुखी उभयमुखी
भारतीय आयुर्वेद के अनुसार
पित्त रूपी कफ रूपी बात रूपी

तनाव :-

तनाव के बगैर जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती है। एक हद तक मनोवैज्ञानिक तनाव हमारे जीवन का एक ऐसा हिस्सा होता है, जो सामान्य व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक साबित हो सकता है। हालांकि यदि ये तनाव अधिक मात्रा में उत्पन्न हो जाएं तब मनोचिकित्सा की आवश्यकता पड़ सकती है, अन्यथा ये आपको मनोवैज्ञानिक रूप से बीमार बना सकते हैं और आपमें मनोव्यथा उत्पन्न कर सकते हैं। सामान्यतः असमान्य मनोविज्ञान पर तनाव के महत्व का अच्छा प्रमाण पाया गया है, यद्यपि इससे पैदा होने वाले विशेष जोखिम और सुरक्षात्मक प्रणालियों के बारे में अधिक जानकारी नहीं है। नकारात्मक या तनावपूर्ण जीवन की घटनाओं से कई प्रकार के मानसिक व्यवधान पैदा होते हैं, जिनमें मूड तथा चिंता से जुड़े व्यवधान शामिल हैं। यौन शोषण, शारीरिक दुर्व्यवहार, भावनात्मक दुर्व्यवहार, घरेलू हिंसा, तथा डराने-धमकाने समेत बचपन और वयस्क उम्र में हुए दुर्व्यवहार को मानसिक व्यवधान के कारण माने जाते हैं, जो एक जटिल सामाजिक, पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक तथा जैववैज्ञानिक कारकों के जरिए पैदा होते। मुख्य खतरा ऐसे अनुभवों के लंबे समय तक जमा होने से पैदा होता है, हालांकि कभी-कभी किसी एक बड़े आघात से भी मनोविकृति उत्पन्न हो जाती है, जैसे- PTSD। ऐसे अनुभवों के प्रति लचीलेपन में अंतर देखा जाता है और व्यक्ति पर किन्हीं अनुभवों के प्रति कोई असर नहीं पड़ता, पर कुछ अनुभव उनके लिए संवेदनशील साबित होते हैं। लचीलेपन में भिन्नता से जुड़े लक्षणों में शामिल हैं- जेनेटिक संवेदनशीलता, स्वभावगत लगण, प्रज्ञान समूह, उबरने के पैटर्न तथा अन्य अनुभव।

भय या डर :-

डर एक नकारात्मक भावना है। डर संभावित खतरे के लिए एक सहज वृत्ति प्रतिक्रिया के रूप में सभी जानवरों और लोगों में पूर्व क्रमादेशित एक ऐसी भावना है। यह भावना हमेशा अनुकूली नहीं है। यह एक अच्छी भावना नहीं है; कोई आजादी, खुशी नहीं है। यह कई रूपों में प्रकट होता है। सबसे आम अभिव्यक्ति गुस्सा है। आपका जीवन डर के जीत के लिए एक संघर्ष है। डर के विपरीत, एकता के बारे में जागरूकता है। डर के सबसे शक्तिशाली जनरेटर मृत्यु की अवधारणा है। डर हम सब एक समय पर महसूस करते हैं। यह बच्चों के रूप में सबसे पहले अनुभव किया जाता है। ज्यादातर लोगों को डर एक अप्रिय भावना लगती है। खतरे की उपस्थिति या निकटस्थता की वजह से एक बहुत अप्रिय भावना को डर केहते हैं। भय, मानव प्रजाति द्वारा अनुभव किया जाता है, यह एक पूरी तरह से अपरिहार्य भावना है। भय की हद और सीमा व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में बदलता है, लेकिन भावना एक ही है। यह प्रत्याशा के कारण होता है। डर में कुछ आम चेहरे के भाव — डरा हुआ चेहरा, बड़ी आंखें, खुला मुंह आदि। अंधविश्वासी, बुद्घिमान, और अनिश्चितता: भय के तीन अलग अलग प्रकार होते हैं। अंधविश्वासी डर काल्पनिक चीजों का एक भय है। बुद्घिमान डर बड़े हो जाने पर और उसके दुनिया का अधिक ज्ञान लाभ के रूप में आता है। अनिश्चितता के डर से एक के कार्रवाई के परिणाम का ना पता चलना होता है। डर एक खतरनाक प्रोत्साहन की उपस्थिति, या प्रत्याशा में एक भावनात्मक राज्य है। कुछ भय कंडीशनिंग प्रक्रिया के माध्यम से हासिल किया जाता है। कुछ माता पिता और भाई के भय के नकल के माध्यम से सीखा रहे जाता है। इन्सानों एवं जानवरों में एक एेसी भावना है जो अनुभूति द्वारा संग्राहक होती है। जब वस्तुओं या घटनाओं के लिए भय तर्कहीन हो जाता है तो उसे “फोबिया” कहा जाता है। डर इन्सानों मैं तब देखा जाता है जब उन्हें किसी वस्तु से किसी प्रकार का जोखिम महसूस होता हो। यह जोख़िम किसी भी प्रकार का हो सकता है- स्वास्थ्य,धन,निजी सुरक्षा,आदि। डर शब्द “फिर” से उत्पन्न हुआ जिसका अर्थ है आपदा या खतरा। अमेरिका में दस प्रकार के डर हैं– आतंकवादी हमले, मकडियाँ, मौत,असफलता, युद्ध या आपराधिक हालात, अकेलापन, भविष्य या परमाणु युद्ध आदि।

दुश्चिंता :-

साधारण शब्दों में चिंता या घबराहट आने वाले समय में कुछ बुरा या खराब घटने की आशंका होना है जबकि इनका कोई वास्तविक आधार नहीं होता। थोड़ी-बहुत चिन्ता सभी को होती है और यह हमारे लक्ष्य की प्राप्ति या सफलता के लिए आवश्यक भी है। यदि चिंता बहुत बढ़ जाती है और इसके व्यापक दुष्प्रभाव व्यक्ति के पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन पर पड़ने लगता है तो हम इसे घबराहट और चिंता रोग (Anxiety Disorder) कहते हैं।

वर्णित किए गए उपरोक्त समस्त पहलुओं का खिलाड़ी के संतुलित एवं उत्कृष्ट उत्कृष्ट प्रदर्शन हेतु कौशल अभ्यास प्रशिक्षण हेतु उपयोग किया जाता है इसलिए इन समस्त पहलुओं का खिलाड़ी के व्यवहार के अंतर्गत अध्ययन करना आवश्यक हो जाता है अतः मनोविज्ञान के उपरोक्त पहलुओं का खेल की दृष्टि से या क्रीड़ा के दृष्टिकोण से अध्ययन करना अति आवश्यक हो जाता है इसीलिए मनोविज्ञान की एक शाखा के रूप में खेल मनोविज्ञान का उद्भव हुआ है जिसमें मनोविज्ञान के उपरोक्त समस्त पहलुओं को दृष्टिगत रखते हुए खिलाड़ी के उत्कृष्ट एवं संतुलित व्यवहार खेल के समय खेल के पहले और खेल के पश्चात बने रहे और खिलाड़ी चोट आदि या बीमारी आदि से बचा रहे जिसमें मानसिक बीमारियों का सबसे ज्यादा महत्व है उनसे भी बचाव के लिए खेल मनोविज्ञान का महत्व है एक खेल मनोवैज्ञानिक इन समस्त पहलुओं का खिलाड़ी के दृष्टिकोण से उसके खेल कौशल प्रशिक्षण और प्रदर्शन को उत्कृष्ट एवं संतुलित बनाने हेतु उपयोग करता है इसलिए खेल मनोविज्ञान की अत्यधिक आवश्यकता है

Dr Pawan Kumar Pachori

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